आज एक ऐसे रचनाकार का परिचय प्रस्तुत है जिसका
पूरा जीवन अभावों
में बीता ! बाँदा निवासी कृष्ण मुरारी पहारिया
सूर, कबीर
और निराला को अपने पुरखे मानते थे ! वो मानते थे कि इन्हीं से उन्होंने विरासत में
बहुत कुछ पाया है! सादगी से भरे इस रचनाकार की एक कृति ‘यह कैसी दुर्धर्ष
चेतना’ १९९८
में उरई (जालौन) के सहयोगियों से प्रकाशित हो सकी ! आज भी ४०० के लगभग अप्रकाशित
रचनाएँ उनकी हस्त लिखितडायरी में प्रकाशित होने का इंतजार कर रहीं हैं ! आज वो इस
दुनिया में
नहीं हैं ...उनकी वो टकसाली रचनाएँ अब प्रवुद्ध
जन कभी पढ़ भी पाएंगे ?
अगले कुछ दिनों तक पहारिया जी के कुछ चुनिन्दा
गीत आप सब के समक्ष रखूँगी
प्रस्तुत है इस शृंखला में उनका आज का
गीत.......अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें..... एक रचनाकार के लिए यही सच्ची श्रद्धांजलि
होगी
एक दिया चलता है -
आगे-आगे अपनी ज्योति बिछाता
पीछे से मैं चला आ रहा
कंपित दुर्बल पाँव बढाता
दिया जरा-सा, बाती ऊँची
डूबी हुई नेह में पूरी
इसके ही बल पर करनी है
पार समय की लम्बी दूरी
दिया चल रहा पूरे निर्जन
पर मंगल किरणें बिखराता
तम में डूबे वृक्ष-लताएँ
नर भक्षी पशु उनके पीछे
यों तो प्राण सहेजे साहस
किन्तु छिपा भय उसके नीचे
ज्योति कह रही, चले चलो अब
देखो वह प्रभात है आता
कृष्ण मुरारी पहारिया
No comments:
Post a Comment