Friday, December 9, 2016

मुक्त कर से /विद्यावती सक्सेना


सन 1985 में कानपुर के आदरणीय प्रतीक मिश्र जी के अथक प्रयासों का प्रतिफल था साझा काव्य संकलन 'कानपुर के कवि' यह वो समय था जब मेरा कविता सुनने का और उपन्यास पढने का शौक चरम पर था ...लिखने की समझ या कविता समझने की समझ से कोई नाता नहीं था बस सुन कर जो मन को भा गयी वही सबसे श्रेष्ठ .............
कानपुर के प्रतिष्ठित गीतकार पंकज परदेसी जी ने प्रतीक जी के इस संकलन की फोटो कॉपी मुझे भेजी .....दिल से सत्य कहूँगी बिना किसी भेदभाव के कि 364 रचनाकारों के इस संकलन में जिस तरह के उत्कृष्ट गीत मुझे मिले मैं अभिभूत हो उठी पढ़ कर ......गर्व भी महसूस किया कि ऐसे गीतकारों की भूमि से मेरा नाता है ......
विद्यावती सक्सेना जी का नाम अक्सर सुनती थी कानपुर की गीतकार बिरादरी से किन्तु कभी कोई गीत पढने को नहीं मिल सका ....'कानपुर के कवि' संकलन ने यह उपहार मुझे दिया जिसमे विद्यावती जी के दो गीत सम्मिलित हैं ...आज उन दो गीतों में से एक गीत आप सबके लिए लायी हूँ ..............

मुक्त कर से बाँटती हूँ स्नेह जग को,
रिक्त ये मन कोष पर होता नहीं है
देखती हूँ जब व्यथित
मानव ह्रदय को
डूब जाते हैं
व्यथा में गान मेरे
एक कटु अनुभूति
उर झकझोर देती
छलक जाते
स्वयम दृग अनजान मेरे

है मझे विश्वास ऐसे तो जगत में,
व्यर्थ ही कोई कभी रोता नहीं है

मैं नहीं अनुचित कभी
स्वीकारती हूँ
सह न पाता
मन कभी अन्याय मेरा
चाहती हूँ हो न पाए
इस ह्रदय की
भावनाओं में
कलुषता का बसेरा

यह समझती हूँ ,नहीं हूँ देवता मैं
दूध से कोई ह्रदय धोता नहीं है

मैं सभी में
रूप उसका देखती हूँ
प्रेरणा जिसकी
प्रदर्शित पंथ करती
ज्योति बन कर
जो समाया है ह्रदय में
प्राण में जो एक
अनहद नाद भरती

मैं बहुत हूँ दूर पूजा से मगर मन,
आस्था प्रभु में कभी खोता नहीं है

विद्या सक्सेना (जन्म 1024)

मन कर डाला कोरा काग़ज़/इंदिरा गौड़




मन चाहता है जुड़ना पर स्वाभिमान अक्षुण्ण रखने की शर्त पर...... रंग बिखराने को तैयार है किन्तु,नेह की अल्पना आपको पूरनी पड़ेगी यह मांग तो वाजिब है......इन्ही भावों से जुड़ा एक मधुर गीत आदरणीय इंदिरा गौड़ जी की सक्षम लेखनी से ......................

मन कर डाला कोरा काग़ज़
इस पर हस्ताक्षर तो करते

अक्षर अक्षर मैं जुड़ जाती
बनती शब्द,शब्द से भाषा
भाषा होकर कुछ तो बनती
कथा,निबंध,सूक्ति,परिभाषा

शायद गीत बनी मैं होती
तुम मुझको अक्षर तो करते

क्षरण अगर होती,बहार की-
हँसकरअगवानी कर आती
जन्म ले सकें नयी कोंपलें
मैं शाखों से ख़ुद झर जाती

शायद मैं मधुऋतु होजाती
तुम मुझको पतझर तो करते

बनती तृप्ति ,अगर घट होती
पनघट पनघट मैं हो आती
तन की सीमा अगर टूटती
जल थी,जल में ही खो जाती

शायद मैं सागर हो जाती
तुम मुझको गागर तो करते

शिलाखंड जो होती,करते
रजकण लहरों के आलोड़न
या फिर पदाघात सह-सह कर
कुछ तो मुझमें जगता कंपन

शायद मैं प्रतिमा हो जाती
तुम मुझको पत्थर तो करते


इंदिरा गौड़

कौन है ? संवेदना /महेश अनघ



ज़िंदगी भर ज़िंदगी से परे परे चलते हुए ज़िंदगी जीना कोई आसान नहीं ....पूरी ज़िंदगी को वो हो कर जीना जो वो नहीं है ............ ''सब ठाठ पडा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा'' सबको मालूम है......किन्तु जीवन के कारोबार चलते रहते हैं उस पटरी पर जिस पर चलने को आत्मा गवाही नहीं देती .....हम,हम हो कर कब जी पाते हैं ....... भागती दौड़ती ज़िंदगी कुछ कहने सुनने की फुरसत ही नहीं देती और जब देती है तब कुछ कहने सुनने की ज़रुरत ही नहीं रह जाती ............... आज का गीत आदरणीय महेश अनघ जी को प्रणाम करते हुए प्रस्तुत कर रही हूँ .............

कौन है ? सम्वेदना !
कह दो अभी घर में नहीं हूँ ।
कारख़ाने में बदन है
और मन बाज़ार में
साथ चलती ही नहीं
अनुभूतियाँ व्यापार में
क्यों जगाती चेतना
मैं आज बिस्तर में नहीं हूँ ।
यह, जिसे व्यक्तित्व कहते हो
महज सामान है
फर्म है परिवार
सारी ज़िन्दगी दूकान है
स्वयं को है बेचना
इस वक़्त अवसर में नहीं हूँ ।
फिर कभी आना
कि जब ये हाट उठ जाए मेरी
आदमी हो जाऊँगा
जब साख लुट जाए मेरी
प्यार से फिर देखना
मैं अस्थि-पंजर में नहीं हूँ

महेश अनघ

पिंजरे का बंदी /बृजनाथ श्रीवास्तव



चिड़िया के बच्चों की अण्डों के भीतर से मुक्त गगन तक के विस्तार यात्रा उसके हर पडाव पर नए ज्ञान को लिखती है किन्तु यही चिड़िया अगर परितोष के पिंजरे में कैद हो जाए तो उसके पंख विस्तार की कल्पना भी नहीं कर सकते .....सब कुछ जान लिया का व्यामोह कुछ भी जानने से इनकार करने लगता है ........ऐसे ही अंधमोह में फँसे ज्ञानियों की दशा का चिट्ठा है यह गीत ..........आज का गीत कानपुर के वरिष्ठ गीतकार बड़े भाई समान आदरणीय बृजनाथ जी की कलम से

पिंजरे का बंदी पढ़ पाता
केवल सीता राम सुआ

लहरों वाली नभ गंगा सी
समझे भरी कटोरी को
नंदन वन की अमिय वल्लरी
लाल मिर्च की छोरी को
चौदह भुवन सलाखों में ही
ज्ञानी हुआ तमाम सुआ

कभी शून्य में चोंच उठा कर
अहम ब्रह्म का घोष करे
निज के फेरे लगा लगा कर
मन का कुछ परितोष करे
बाहर जीवन मात्र छलावा
रटता आठों याम सुआ

अंध ज्ञान ने कुतर दिए हैं
उसके पंख सुहाने सब
मुक्त गगन में खिले चमन में
भूला सभी उड़ाने सब
करता रहता पिंजरे में ही

अब तो चारो धाम सुआ