प्रस्तुत कर्ता/ अंकित काव्यांश
मन के मारे वन गये, वन तजि बस्ती माहिं।
कह कबीर क्या कीजिये, यह मन ठहरै नाहिं।।
लगभग 600 साल पहले बाबा कबीर कह गए कि मन ठहरता ही नही।रचित दीक्षित ने अपने
नवगीत में उसी मन विचलन को विभिन्न नव प्रतीकों के माध्यम से दर्शाया है।किसी कवि
का मन एक साधारण मनुष्य की तुलना में अधिक संवेदनशील माना गया है।प्रस्तुत नवगीत
में भी कवि ने अनोखे विरोधाभासी बिम्बों से मन के कम्पन की तीव्रता को नया आयाम
दिया है जैसे- 'कम्पन
जैसे फाँसी चढ़कर मुर्दा बोला हो' या 'कम्पन जैसे पल भर में ही एक सदी कौंधी' आदि
चौखट के
पर्दे सा मेरा मन
हरदिन करता है अनगिन कम्पन
कम्पन जैसे,
चन्दन छूकर हुआ फफोला हो
कम्पन जैसे
फांसी चढ़कर मुर्दा बोला हो
कम्पन जैसे,
मृत्यु-नगर से लौटा हो जीवन।
कम्पन जैसे,
पल भर में ही एक सदी कौंधी
कम्पन जैसे,
एक ताल पर एक नदी औंधी
कम्पन जैसे,
पर्दे पर से उतरा हो सावन
रचित दीक्षित
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