सच्चा रचनाकार साधक होता है और जीवन पर्यंत सिर्फ
साधक ही रहना चाहता है इस बात की परवाह किये बिना कि कल उसके सृजन को किस रूप में
प्रतिस्थापित किया जाएगा या उसे क्या कह कर याद किया जाएगा......... कबीर बना नहीं
जाता कबीर तो मिट्टी में स्वतः पनपते हैं खाद पानी की प्रतीक्षा किये बगैर, कोयल की तरह अमराई
में खुद में मगन हो कूजते हैं बिना यह सोचे कि उनको कोई सुन भी रहा होगा या नहीं , रेगिस्तान में
अचानक ही किसी मरुद्वीप की तरह उग आते हैं तपते क्षणों को शीतल करने के
लिए.............कुछ लेना न देना मगन रहना आज प्रस्तुत है आदरणीय देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' जी का कबीर को
समर्पित एक गीत 'मगहर के संत'
काशी के पंडित हम हो लेंगे कल
आज बना रहने दो मगहर का संत
क्या होता पित्रोचित संरक्षण
क्या होता माता का रसभीना स्नेह
हमको तो अर्थहीन लगते सब
सखा, स्वजन, बंधु, द्वार, गेह
हम हैं अज्ञात वंश निर्गुणिये आज
खोजेंगे हममे गुण कल के श्रीमंत
वृंतछिन्न आँधी के पारिजात हैं
बह आये हम तट पर धार से
महकेंगे उसके ही आँचल में
उठा लिया जिसने भी प्यार से
धूल भरे गलियारे सिर्फ आज हैं
हो जायेंगे कल हम भीड़ों के पंथ
रचे नहीं पिंगल या अलंकार
चहके हम बन कर बन के पांखी
जाने कब लोगों ने नाम दिए
दोहरा, रमैनी, सबदी, साखी
पढ़े कहाँ हम पुराण निगमागम
गढ़े कहाँ कालजयी कविता के ग्रन्थ
मसि, कागद, कलम
कभी गहे नहीं
वाणी ने अटपटा वही कहा
जो कुछ देखा अपने आस-पास
वह सब, जो हमने भोगा , सहा
साधारण अर्थों के गायक हैं हम
बने नहीं शब्दों के सिद्ध या महंत
अपना घर फूंक कर तमाशा अब
देख रहे हैं हम चौराहे पर
बड़े जतन से जिसको ओढ़ा था
ज्यों की त्यों धर दी लो वह चादर
जली हुयी हाथ में,
लुकाठी लेकर
अनहद से मिला रहे आदि और अंत
देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र'
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