प्रस्तुतकर्ता/ तरुणा मिश्रा
गीत एक ऐसी विधा है... जो हर एक साहित्य प्रेमी
को अपनी ओर आकर्षित करती है... मुझे भी गीत पढ़ने-सुनने का बहुत चाव है.|.. सरल... सरस .. और
भाव पक्ष की प्रधानता मेरे लिए गीत की सबसे बड़ी विशेषता है.... और ऐसा ही एक गीत
मैं आप सबके समक्ष प्रस्तुत करना चाहती हूँ... जिसे वरिष्ठ गीतकार 'डॉ.धनञ्जय सिंहजी ' ने लिखा है|... बेहद सहज सरल...
भाषा का प्रयोग और भाव पक्ष की प्रधानता ही.. इस गीत की विशेषता है... आशा करती
हूँ कि ये गीत आप सब को भी बहुत पसंद आएगा...!!!
यद्यपि है स्वीकार निमंत्रण, तदपि अभी मैं आ न सकूँगा ..
फूल बनूँ , खिल कर मुरझाऊँ
मेरे वश का काम नहीं है
जिससे आगे पड़े न चलना
ऐसा कोई धाम नहीं है
तुमने गति को यति दे दी तो, कभी लक्ष्य को पा न सकूँगा
हृदय तुम्हारा पानी जैसा
गिरे कंकड़ी तो हिल जाए
मेरा दिल दर्पण जैसा है
टूटे सौ प्रतिबिम्ब दिखाए
यदि उलटा प्रतिबिम्ब बना तो , दर्पण को बहला न सकूँगा
.
पल भर को निज रूप दिखा कर
अधरों को यह गीत दे दिया
वर्तमान का सुख दुनिया को
मुझको करुण अतीत दे दिया
अब कोई आघात मिला तो, मैं जीवन भर गा न सकूँगा
सब-कुछ बदल गया है लेकिन
घावों की श्रृंखला न टूटी
बहुत सरल हैं पन्थ दूसरे
पर मुझसे यह राह न छूटी
सुख-वैभव दे डालोगे तो , घावों को सहला न सकूँगा
देखा नहीं किसी को मैंने
मुरझाये फूलों को चुनते
देखा नहीं किसी को अब तक
क्रन्दन-गीत चाव से सुनते
रोने का अभ्यास न मुझको , लेकिन अब मुसका न सकूँगा...
!!
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