मित्रों आज हिन्दी दिवस है।बड़ा असमंजस होता है
जो हिन्दी हमारा मन ,प्राण और जीवन है उसको भला एक दिन क्यों? हिन्दी तो
दैनन्दिनी है आज कविवर श्री देवी प्रसाद शुक्ल राही जी का एक गीत रख रही हूँ जो
बेहद प्रासंगिक है शीर्षक है-रूप से कह दो
रूप से कह दो ,कि देखे दूसरा घर
मैं गरीबों की जवानी हूँ, मुझे फुरसत नही है।
बचपने में मुश्किलों की गोद में पलती रही मैं
धुएँ की चादर लपेटे हर घड़ी जलती रही मैं
ज्योति की दुल्हन बिठाये,जिन्दगी की पालकी में-
सांस की पगडंडियों पर,रात दिन चलती रही मैं,
वे खरीदें स्वप्न जिनकी आँख पर सोना चढ़ा हो-
मैं अभावों की कहानी हूं
मुझे फुरसत नहीं है।
झोपड़ी मेरी बहन फुटपाथ है वीरन हमारा
माँ गरीबी, कर्ज बापू दर्द है साजन हमारा
एक सौतन सी मुसीबत,
हाथ धो पीछे पड़ी है
खण्डहरों से पूछ लेना ,है कहाँ छाजन हमारा
और होंगे वे कि जो रंगरेलियों में घर बसायें
मैं दुखों की राजधानी हूं ,
मुझे फुरसत नहीं है
देवी प्रसाद शुक्ल राही
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