कानपुर के सुविज्ञ और वरिष्ठ गीतकारों में विनोद
तरुण जी का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है............आज प्रस्तुत है आदरणीय
तरुण जी का ही एक सुन्दर गीत गीत का प्रवाह और विषयवस्तु दोनों ही अनुपम है
साभार .........कानपुर के समकालीन कवि/ सम्पादक :
डॉ विनोद त्रिपाठी
आँसू.....
पीड़ा में जन्मे हों या
आनंद आत्मज हों,
आँसू अपनी मूल प्रकृति से
खारे होते हैं
पर्वत के उत्कर्ष बिंदु से
गहरे सागर तक
संशय वाले अंधियारों से
उजले आखर तक
जहां रहे अपने ही रँग में
सब कुछ रँग डाला
इनके आगे शेष सभी रँग
हारे होते हैं
शब्द जहां चुक जाते हैं
ये बोला करते हैं
भावों की अनगिन गांठों को
खोला करते हैं
राधा-मीरा के नयनों से
छलके जलकण में
पांचाली की आँखों में
अंगारे होते हैं
सुख-दुःख के उद्वेलन से जब
अंतस हिलता है
तब इनके आ जाने भर से
संबल मिलता है
द्रवीभूत होकर घर छोड़ें
फिर न वहां लौटे
ये सन्यासी होते हैं,
बंजारे होते हैं
निर्माणों के प्रबल स्रोत ये
हवसों के कारक
सृजन हार इन ही में
इनके भीतर संहारक
अणिमा रूप किन्तु गरिमा में
अतिशय बलशाली
ये अपने में सारा जग
विस्तारे होते हैं.
विनोद तरुण
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