Friday, December 9, 2016

कौन है ? संवेदना /महेश अनघ



ज़िंदगी भर ज़िंदगी से परे परे चलते हुए ज़िंदगी जीना कोई आसान नहीं ....पूरी ज़िंदगी को वो हो कर जीना जो वो नहीं है ............ ''सब ठाठ पडा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा'' सबको मालूम है......किन्तु जीवन के कारोबार चलते रहते हैं उस पटरी पर जिस पर चलने को आत्मा गवाही नहीं देती .....हम,हम हो कर कब जी पाते हैं ....... भागती दौड़ती ज़िंदगी कुछ कहने सुनने की फुरसत ही नहीं देती और जब देती है तब कुछ कहने सुनने की ज़रुरत ही नहीं रह जाती ............... आज का गीत आदरणीय महेश अनघ जी को प्रणाम करते हुए प्रस्तुत कर रही हूँ .............

कौन है ? सम्वेदना !
कह दो अभी घर में नहीं हूँ ।
कारख़ाने में बदन है
और मन बाज़ार में
साथ चलती ही नहीं
अनुभूतियाँ व्यापार में
क्यों जगाती चेतना
मैं आज बिस्तर में नहीं हूँ ।
यह, जिसे व्यक्तित्व कहते हो
महज सामान है
फर्म है परिवार
सारी ज़िन्दगी दूकान है
स्वयं को है बेचना
इस वक़्त अवसर में नहीं हूँ ।
फिर कभी आना
कि जब ये हाट उठ जाए मेरी
आदमी हो जाऊँगा
जब साख लुट जाए मेरी
प्यार से फिर देखना
मैं अस्थि-पंजर में नहीं हूँ

महेश अनघ

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