प्रस्तुतकर्ता/ आशीष श्रीवास्तव
आज 'एक दिन एक गीत' श्रँखला के अन्तर्गत अपने पूज्य पिताजी डॉ. जे.पी.श्रीवास्तव जी के
काव्य संग्रह 'रागाकाश' के रागानुगा खंड से एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ। पूज्य पिताजी
स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक रहे और प्राचार्य पद से २१ वर्ष
पूर्व सेवानिवृत्त हुए। गीत, ग्रामीण स्त्री का अपने पति की प्रतीक्षा में रत रहते हुए ,दिन रात के क्रिया
कलापों को अत्यंत सुरीले छंदविधान में रचित है।मुझे गीत उसकी लयात्मकता व सरल
शब्दावली के साथ इसलिये भी पसंद है कि वह लौकिक और आध्यात्मिक दोनों धरातलों को
स्पर्श करता है। लौकिक स्तर तो स्पष्ट है ही आध्यात्मिक रूप में आप देखें कि क्या
कृष्ण-प्रेम में आकंठ छकी विरहाकुल गोपियाँ इसी अवस्था में नहीं थीं? चलिये , गीत का रसास्वादन
करिये और अपने अनुभव व व्याख्या से अवगत कराइये।
घनी अंधेरी रात, सजन! मैं आज अकेली
कौन सुनेगा बात, साथ न एक सहेली।
ज्वार पकी, महुआ गदराए
बैरिन कोयल फुदके,
गाए
अब तो बालम रहा न जाए
फसलें आईं, तुम न आए।
पीली फूली सरसों लहरी मदमाती रूपेली
तुमने प्रियतम बाट कौनसी दूजी ले ली।।
माथे पर गगरी रख भारी
पोखर की जब राह संभारी
पूछे सखियाँ दे दे गारी
क्यों, साजन ने काह बिसारी।
खाली गगरी छलके आतुर अजब पहेली
सूखी जाती रस बिन यह गिरनार चमेली।।
लाल तुम्हारा छाती चढ चढ
पूछे क्या क्या बातें गढ गढ
परेशान करता है लड लड
सभी ओर छाई है गड बड।
कैसे समझाऊँ उसको मैं हाय गंवेली,
उनकी ही तो गंध बदन भर मेरे फैली।।
संझा को पक्षी भी लौटे
मेरे भाग अभागे खोटे
बडी निगोडी याद कचोटे
लौटूँ मैं, तब क्या तुम लौटे।
सच है मैं हूँ रही न अब वो नई नवेली
पर जैसी हूँ सदा तुम्हारी दासी-चेली।।
(१४-९-१९६०)
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