प्रस्तुतकर्ता/ जगदीश पंकज जेंड
रचनाकर्म के आरम्भिक दिनों से ही मेरी रूचि अच्छे
गीत-नवगीत पढ़ने और अच्छे स्तरीय लेखन की ओर रहा। इसी कोशिश में मेरा ध्यान विभिन्न
पत्रिकाओं में छपे गीतों की ओर तथा उस समय अपनी सीमित सामर्थ्य में गीतों की
पुस्तकें ख़रीदने की ओर रहता था। उन्हीं दिनों लगभग वर्ष १९७१-७२ के दौरान मुझे
आदरणीय वीरेन्द्र मिश्र जी के गीतों ने अपनी लय,शब्द-सौष्ठव ,प्रवाह और विषय-वस्तु के द्वारा सबसे अधिक आकर्षित किया। उन्हीं
दिनों वीरेन्द्र मिश्र जी का एक गीत जो निराश मन को आशा की किरण देता हुआ नए
उत्साह का संचार करता है मुझे बड़ा प्रिय रहा तथा उसका प्रभाव मेरे अपने एक
प्रारम्भिक गीत पर भी पड़ा। मिश्र जी का वह गीत सरिता पत्रिका प्रकाशन द्वारा
प्रकाशित 'स्वर
के दीप' नामक
गीत संचयन में संकलित है। वही गीत 'एक दिन एक गीत' समूह में पोस्ट करते हुए मैं अपनी उन्हीं स्मृतियों में हर्षित होते
हुए मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ। -जगदीश पंकज
तू सिसकती शाम सा ग़मगीन है,
आ,तुझे खिलती किरण तक ले चलूं ,
गीत के रूपम गगन तक ले चलूं.
स्वप्न तेरे उड़ गए आकाश में,
तू पुजा तो आंसुओं के हार से,
तैरता मन कूल वाली प्यास में,
क्या उसे फिर दीप के त्यौहार से.
तू अपूजित मूर्ति सा चुपचाप है,
आ तुझे मुखरित सपन तक ले चलूँ,
साफ़सुथरे आचरण तक ले चलूं.
देखते हम आ रहे हर कन गरम ,
रेत के हर श्वेत रेगिस्तान का.
एक हिरनी , एक तृष्णा,एक भ्रम
प्रश्न फिर है ही नहीं मधुपान का.
गंध तू भटकी हुई वीरान में,
आ तुझे तेरे पवन तक ले चलूँ ,
एक सिन्दूरी चमन तक ले चलूं.
हर दिशा में भागने वाली हवा ,
देख,सूनी है मलय की पालकी.
जुड़ रही है सर्द साँसों की सभा,
और त्योरी है बदलती काल की.
जो कि तेरे ही दुखों से है दुखी,
चल उसी भीगे नयन तक ले चलूं,
चाँद को जाते चरण तक ले चलूं.
जगमगा तू चांदनी की सेज पर,
मैं रहूँ तो द्वार का स्वरकार ही.
मंज़िलों के मंदिरों में भेज कर,
मैं रहूँ तो सिर्फ वंदनवार ही.
मूक राधा की निरुत्तर बांसुरी
चल तुझे संगीत क्षण तक ले चलूँ,
रूप मन को गीत मन तक ले चलूं.
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