जनपद आजमगढ़ में 1939 में जन्मे श्री मधुकर अष्ठाना हिन्दी गीत-नवगीत के सशक्त
हस्ताक्षरों में से एक हैं। सहज सम्प्रेषण से सजे उनके नवगीत समकालीन यथार्थ का
बहुआयामी चित्र प्रस्तुत करते हैं। बड़ी साफ़गोई से कालखंड की भ्रष्ट अराजक सत्ता के
चरित्र का पर्दाफाश करते हैं। गिने-चुने शब्दों के पुष्ट गीत शिल्प में संवेदना की
प्राणप्रतिष्ठा का ऐसा कौशल विरल ही है। यहाँ आम आदमी बाबू जी है, जिसकी इंसानियत की
दुकान लुटने और बेबस नज़रों से देखते रह जाने की नियति का प्रसंग कितना सामयिक है, आप भी देखें।
दिन दहाड़े लूट गयी
दूकान बाबू जी
जी रहे हैं
जिंदगी बेजान बाबू जी
आदमीयत के शहर में
लोग अंधे हैं
लोक घायल
तंत्र के कमजोर कंधे हैं
चंबली परिवेश
नगर मसान बाबू जी
जा रहे हैं चाँद पर
बस्ती बसाने हम
साथ में हैं भूख
भ्रष्टाचार भय का गम
देखिये मालिक हुए
दरबान बाबू जी
नाश्ते में आत्महत्या
रेप के चर्चे
लंच में लाखों घुटाले
खेल के चर्चे
डिनर में परसा गया
ईमान बाबू जी
भावनाओं की चिताएँ
रोज़ जलती हैं
सैकड़ों धर रूप
ये राहें बदलती हैं
हौसले टूटे हुए
धनु-बान बाबू जी
मधुकर अष्ठाना
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