आज के सन्दर्भ में माहेश्वर तिवारी जी का यह नवगीत
कितना ज्यादा प्रासंगिक है
आप भी देखिये।
खुद से खुद की
बतियाहट हम
लगता भूल गए |
डूब गए हैं
हम सब इतने
दृश्य -कथाओं में ,
स्वर कोई भी
बचा नहीं है शेष,
हवाओं में ,
भीतर के मन की
आहट हम
लगता भूल गए
रिश्तों वाली
पारदर्शिता लगे
कबन्धों -सी ,
शामें लगती हैं
थकान से टूटे
कन्धों -सी ,
संवादों की
गरमाहट हम
लगता भूल गए
माहेश्वर तिवारी
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