स्व.अमरनाथ श्रीवास्तव की अनुभूतियों का जो विश्व
है उसमें बिम्बों और प्रतीकों का अद्भुत विधान है। इनका अन्तर्मन दृष्टिसम्पन्न और
रचनात्मकता से परिपूर्ण है। इनका कथ्य प्रारम्भ में एक छोटी सी अनुभूति पर आधारित
दीखता है किन्तु रचना के अन्त तक पहुँचते -पहुँचते उसका विस्तार क्षितिजव्यापी हो
जाता है। प्रस्तुत है उनका एक गीत
पीहर का बिरवा
छतनार क्या हुआ
सोच रहीं लौटी
ससुराल से बुआ
भाई भाई फ़रीक
पैरवी भतीजों की
मिलते हैं आस्तीन
मोड़कर कमीजों की
झगड़े में है महुआ
डाल का चुआ
किसी की भरी आँखें
जीभ ज्यों कतरनी है
किसी के सधे तेवर
हाथ में सुमिरनी है
कैसा-कैसा, अपना
ख़ून है मुआ
पुश्तैनी रामायन
बँधी हुई बेठन में
अम्मा ज्यों जली हुई
रस्सी है ऐंठन में
बापू पसरे जैसे
हराकर जुआ
जोड़ रही हैं उखड़े
तुलसी के चौरे को
आया है द्वार का
पहरुआ भी कौरे को
साझे का है, भूखा
सो गया सुआ
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