Thursday, December 8, 2016

गाँव गया था/ कैलाश गौतम


प्रस्तुतकर्ता/ श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'

समूह मित्रो आज मैं आपके सन्मुख कैलाश गौतम की रचना प्रस्तुत करना चाहता हूँ। बहुत सारे गीत नवगीत हम आज भी पढ़ते रहते हैं। प्रत्येक रचना से कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। आज मेरी प्रस्तुति की एक विशेषता है कि यह आज तक मेरे अंतस में अनुगूँज की तरह गूँजता रहता है। एकदम साधारण से प्रतीत होने वाले इस गीत ने मुझे इतना प्रभावित किया कि इसके बाद मैं नवगीत की ओर मुड़ गया। इस गीत में वह क्या तत्व है जिसने मुझे इतना आकर्षित किया यह मैं नहीं जानता। आज आप सबसे यही जानना चाहता हूँ। प्रस्तुत है कैलाश गौतम का गीत
‘’गाँव गया था गाँव से भागा’’

गाँव गया था
गाँव से भागा

रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
गिरवी राम रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का शृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा जुनून देखकर
गंजे को नाखून देखकर
उजबक अफलातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था

गाँव से भागा।

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