Sunday, December 4, 2016

उन्मन उन्मन सुबह/राम स्वरुप सिन्दूर

प्रोफ़ेसर रामस्वरूप सिन्दूर जी का आज गीत सामाजिक प्रशासनिक और
राजनैतिक परिपेक्ष्य में दोहरे व्यक्तित्वों को और कथनी करनी के बीच खुदी गहरी खाई को ,अनोखे बिम्बों के माध्यम से पेश कर रहा है ...

उन्मन-उन्मन सुबह
और फिर उन्मन-उन्मन शाम
दिन के माथे जड़ी धूल पर उखड़े हुए प्रणाम

सड़कों पर
बदरंग टोपियाँ-झण्डों की भरमार,
चाभी-भरे
खिलौनों के जुलूस करते बेगार,
वक़्त गुज़ारे घोर नास्तिक
लेकर हरि का नाम

होश फाख्ता
करते बगुला-भगती शांति-कपोत,
सूरज की
रोशनी पी गये, नशेबाज़ खदयोत,
जो जितना बदनाम हो रहा
वह उतना सरनाम

होटल के
प्यालों से चिपके क्षमताओं के होंठ,
स्वगत-गालियों में
करते हैं खुद अपने पर चोट,
भीतर-भीतर युद्ध हो रहा
बाहर युद्ध-विराम


राम स्वरुप सिन्दूर 

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