Wednesday, November 30, 2016

लौट आया फिर वही मौसम/ ज्ञान प्रकाश आकुल


प्रस्तुत कर्ता/ अंकित काव्यांश

पानी और प्रेम दोनों के गुणधर्मों पर मंथन करते समय कई बार मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों को परस्पर पर्यायवाची होना चाहिए था।नदी में बहता हुआ जल ऐसा लगता है जैसे किसी व्याकुल प्रेमी की कामनाएं बैरी दुनिया की जमीन पर संघर्ष कर रहीं हो।
साँसों की धार सहेजे किनारे रूपी दो जीवनों के बीच बहती प्रेम की नदी का जलस्तर उस समय और बढ़ जाता है जब एक दूजे से बिछड़ने का मौसम आ जाए।बिछड़ने से ठीक पूर्व की मनोदशा और इंतिजार का एक अरसा बीत जाने के बाद नायक की आकुल पुकार को व्यक्त करता मेरे गुरुदेव आदरणीय श्री ज्ञान प्रकाश आकुल का यह गीत आप सबके समक्ष-

लौट आया फिर वही मौसम
उसी नदिया किनारे

जिस नदी के तीर हमने
रेत के कुछ घर गढ़े थे,
फूल जैसे पाँव थे पर
स्वर्ग की सीढ़ी चढ़े थे,
और समयातीत होकर
प्रेम के आखर पढ़े थे,

हो रहे हैँ नैन मेरे नम
उसी नदिया किनारे

जिस नदी के तीर हमने
चाँदनी नभ से उतारी,
जिस नदी के तीर रोकी-
थी कभी रवि की सवारी,
रेत से हमने किसी दिन
माँग भर दी थी तुम्हारी

एक पल को हर विषम था सम
उसी नदिया किनारे

दिन पलासी था यही जब
तुम नदी के पार उतरे,
साथ तेरे नाव उतरी
और सब पतवार उतरे,
हम न जा पाये जहाँ सब लोग
कितनी बार उतरे

लौट आओ अब! खड़े हैँ हम
उसी नदिया किनारे


ज्ञान प्रकाश आकुल

कहीं न सोई पीड़ा जग जाए/ कृष्ण मुरारी पहारिया

कृष्ण मुरारी पहारिया जी का एक ऐसा गीत जिसे शायद हर रचनाकार अपने ही मन की बात कहेगा.............रचनाकार का सबसे अनोखा गुण होता है  परकाया प्रवेश ...जो जितना सक्षम वो उतनी ही कुशलता से दूसरों का मन पढ़ पाता है और फिर उसे लिख पाता है ............. यही तो  दायित्व है एक  रचनाकार का .....मर्म को छूती रचना

मेरे मन की वंशी पर,
अंगुलियाँ मत फेरो
कहीं न सोई पीड़ा जग जाए

अब मुझको दायित्व निभाने दो
अपने जैसों का दुख गाने दो
जिस पर विज्ञापन का पर्दा है
उसको आज खुले में लाने दो

मेरी ओर न ऐसे
खोये नयनों से हेरो
कहीं न कोई सपना ठग जाए

कैसे समझाऊँ अपना अभियान
मैंने तो ली है गाने की ठान
एक बूंद अमृत से क्या होगा
जीवन भर तो करना है विषपान

मुझे बाहुओं के रसमय वृत्तों से
मत घेरो
कहीं सृजन को राहु न लग जाए


कृष्ण मुरारी पहारिया

लो विदा दे दी तुम्हे इस जन्म में/ अंकित काव्यांश



एक सहज और सरल सा गीत.......भाग्य के लिखे को सर आँखों पर लेते हुए एक दूसरे से विदा लेना तब शायद आसान हो जाता है जब अगले जन्म फिर मिलने का वादा होता है................ फिर भी विदा आसान नहीं बहुत से किन्तु- परन्तु हाशिये से निकल कर सोच में डालेंगे ही ….अंकित काव्यांश नई पीढ़ी के गीतकारों में एक ऐसा नाम है जो भविष्य के अच्छे गीतकारों में शामिल होने के लिए अपना नाम सुनिश्चित कर चुके हैं.......लीजिये पढ़िए उनका ही एक गीत.

लो विदा दे दी तुम्हे इस जन्म में,
किन्तु अगले जन्म का वादा करो
तोड़कर बन्धन सभी सँग सँग रहोगी

सुमन अर्पण, आचमन या मन्त्र में
है सभी में मन मगर खुलकर नही
अब न रखना व्रत मुझे मत माँगना
यत्न कोई भाग्य से बढ़कर नही

छोड़ दो करनी प्रतीक्षा द्वार पर
देहरी का दीप आँगन में धरो
और कब तक लांछनों को यूँ सहोगी

मान्यताएँ हैं जमाने की कठिन
किन्तु अपना प्यार है सच्चा सरल।
परिजनों की बात रखनी है तुम्हे
इसलिए मैं हारता हूँ "आज, कल"

मान लोगी बात सबकी ठीक पर
सात जन्मों के लिए होंगे वचन
सोंचता हूँ हाय ! तब तुम क्या कहोगी



अंकित काव्यांश

मंदिरों में हम नहीं ऐसी शिलाएं हैं/ कन्हैयालाल बाजपेई

संघर्ष महज संघर्ष नहीं होते वरन संपादित अनुभव होतें है ......... जीवन के दुर्गम्य पथ को समतल करने, उन्हें चलने योग्य बनाए जाने के अनवरत प्रयासों की कथा होते हैं.....आत्मसम्मान को सुरक्षित रखते हुए बिना समझौता किये आगे बढना आसान  नहीं  होता किन्तु कुछ लोग लिखते हैं खुद्दारी की कथाएं  ऐसी कथा जो आने वाले समय को आसानियाँ देतीं हैं ............ एक ऐसी ही कथा का गीत ,........जिसके गीतकार हैं सहज,सरल भाषा के गीतकार आदरणीय कन्हैयालाल बाजपेई

मंदिरों में हम नहीं
ऐसी शिलाएं हैं
जो कि धारा की दिशाओं में बही होंगी
पर समय की धार से जो
जूझते आये
उन हठी पाषाण-खंडों की नियति हैं हम

हम उपेक्षित रेत
खंडित शिला के इतिहास
टूटने के बहुत अनुभव
हैं हमारे पास
शुभ कलश पर हम नहीं
वे वर्तिकाएँ हैं
जो हवाओं में तनिक झुक कर जली होंगी
किन्तु बुझने तक लड़े हैं आँधियों से जो
उन हठीले ज्वालपुंजों की प्रगति हैं हम

रहे होंगे गीत
पर अब बुझ चुके हैं हम
जी रहे हैं हीनता की
ग्रंथियों के क्रम
संकलन में हम नहीं
वे काव्यकृतियाँ हैं
जो समय के मानपत्रों में ढली होंगी
पर प्रशस्ति नहीं बने अब तक किसी की जो
उन निरर्थक मुक्तकों की भंग यति हैं हम



कन्हैयालाल बाजपेई

देवदार / मधु शुक्ला

आज पढ़िए अनुभूति के देवदार विशेषांक से एक बिलकुल नया गीत......... एक बार देखिये तो देवदार को मधु शुक्ला जी की दृष्टि से........सच कायल हो जायेंगे आप
संत सरीखे खड़े हुए हैं

देवदार के वृक्ष

पर्वत-पर्वत, शिखर-शिखर पर घाटी-घाटी में
बूटे जैसे जड़े हुए हैं
देवदार के वृक्ष

मौन पर्वतों के मन के
कोमल उदगारों से
खड़े हुए स्वागत में जैसे
वन्दनवारों से
अठखेली कर रहे मेघ के भीगे फाहों से
नभ के आँगन बड़े हुए हैं
देवदार के बृक्ष

देखा अब तक चित्रों में था
पढ़ा किताबों में
देखा अब साक्षात तो पाया
खुद को ख्वाबों में
मन्त्र मुग्ध हो गया ह्रदय निःशब्द हुयी वाणी
तस्वीरों से मढ़े हुए हैं
देवदार के वृक्ष

समाधिस्थ से खड़े हुए हैं
निरत साधना में
पत्र, फूल, फल, गंध चढ़ाते
नित उपासना में
गुँजा रहे घाटी को अपने मंत्रोच्चारों से
देवों के ज्यों गढ़े हुए हैं
देवदार के वृक्ष

उभर रहे आकार कई
पल-पल आभासों के
पलट रही हैं पृष्ठ कथाएँ
फिर इतिहासों के
कालिदास के विकल यक्ष की प्रेम भरी पाती
आखर-आखर पढ़े हुए हैं
देवदार के वृक्ष


मधु शुक्ला 

कसमसाई देह फिर /योगेन्द्र दत्त शर्मा

फागुन के बौराये हुए मौसम को समर्पित आदरणीय योगेन्द्र दत्त शर्मा जी का एक गीत

कसमसाई है लता की देह
फागुन आ गया

पारदर्शी दृष्टियों के पार
सरसों का उमगना
गंध-वन में निर्वसन होते
पलाशों का बहकना
अंजुरी भर भर लूटता नेह
फागुन आ गया

इंद्रधनुषी नेह का विस्तार
ओढ़े दिन गुज़रते
अमलताशो से खिले सम्बन्ध
फिर मन में उतरते
पंखुरी सा झर गया संदेह
फागुन आ गया

एक वंशी टेर तिरती
छरहरी अमराइयों में
ताल के संकेत बौराये
चपल परछाइयों में
झुके पातों से टपकता मेह
फागुन आ गया

नम अबीरी दूब पर
छाने लगा लालिम कुहासा
पुर गया रांगोलियों से
व्योम भी कुमकम छुआ सा
पुलक भरते द्वार, आँगन, गेह
फागुन आ गया


योगेन्द्र दत्त शर्मा

माँ डरती है/ श्याम श्रीवास्तव

प्रस्तुत है आदरणीय श्याम श्रीवास्तव जी की एक रचना जिसे 'गीत गागर' पत्रिका के माध्यम से आप तक पहुँचा रही हूँ गीत का अनोखापन आप स्वतः महसूस कर सकेंगे

बेटा कुछ बदला दिखता है
माँ डरती है
गणित नहीं, गीता पढता है
माँ डरती है

छोडी मेले झूले के जिद
नए खिलौने खेल तमाशे
गाँठ जोड़ बैठा कबीर से
बोध गया की क्षमा दया से
कच्ची वय साखी लिखता है
माँ डरती है

पैर दबाता माँ के प्रतिदिन
मंदिर मस्जिद कम जाता है
माँ को थका देखकर वह भी
टूटा सा खुद को पाता है
माँ को सर -माथे रखता है
माँ डरती है

कैसे हुयी प्रदूषित धारा, खोज
रहा वह असल वजह को
चाह रहा कूदे गहरे जल
वह तलाशने कालीदह को
भयानकों से जा भिड़ता है
माँ डरती है

बहस नहीं करता, तलाशता
राह दुखों के समाधान की
गाँव गली के दुःख के आगे
फिक्र न अपने पके धान की
फेंटा कस कर चल पड़ता है
माँ डरती है



श्याम श्रीवास्तव

मैंने सारे अंधियारे को/ मोहन भारतीय

'प्रोत्साहन' नामक पत्रिका आज प्राप्त हुयी...... मुम्बई से निकलने वाली इस पत्रिका की सम्पादक हैं श्रीमति कमला जीवितराम सतपाल जी.......आज का गीत इस ही पत्रिका के सौजन्य से..............गीतकार 'मोहन भारतीय' जी ने गीत के भावों को कितने सटीक शब्दों और शिल्प में बाँधा है ये आप स्वयं ही महसूस करेंगे

मैंने सारे अंधियारे को
पीने का संकल्प लिया है
मुझको यदि मिल गयी सुबह तो
पहली किरण तुम्हे दे दूँगा

मैं उन सब के लिए लडूंगा
जिनको नहीं मिला उजियारा
तूफानों से जीत गए पर
तट ने जिन्हें नहीं स्वीकारा

मैंने जीवन भर पतझर से
पग-पग पर विद्रोह किया है
मुझको यदि मिल गयीं बहारें
सारा चमन तुम्हे दे दूँगा

मेरे युग के लक्ष्मण को अब
बहकाना आसान नहीं है
मेरे आदर्शों के आगे
अब कोई बलवान नहीं है

मैंने जग के हर रावण से
लड़ने का संकल्प लिया है
जीत गया तो एक नयी मैं
रामायण तुझको दे दूंगा

मैंने कभी किसी से कुछ भी
अपने लिए नहीं माँगा है
मैंने अभिमन्यु बन कर के
दुःखों का सागर लांघा है

मैंने दुःखों के कौरव से
आजीवन संघर्ष किया है
मैं यदि सफल हुआ तो अपने
बढ़ते चरण तुम्हे दे दूँगा


मोहन भारतीय

हम बदलेंगे युग बदलेगा/मनोज शुक्ला

पाठको से सीधा सम्वाद करता गीत........ रचनाकार के अनुसार गीत किसी विद्यालय के प्राध्यापक के उदगार हैं जिसे उन्होंने गीत में ढाला है............. बिना किसी तंज बिना किसी कटाक्ष सीधी-सादी भाषा में कही गयी बात कितनी प्रभावशाली हो सकती है मनोज शुक्ला के गीत को पढ़ कर स्वयं महसूस करिए

हम बदलेंगे तो युग बदलेगा
सच मानो,
हम सुधरेंगे तो युग सुधरेगा
सच मानो।

ये तो है सबको ज्ञात कि
हम युग नायक थे,
मानवता के सेवक थे
सच के गायक थे।
हम भी पूजे जाते थे
देवो से जग में,
थे फूल बिछाये जाते
हम सब के मग में।

झंडा फिर से अपना लहरेगा
सच मानो,

हम भी भूले है डगर
जमाना हँसता है,
हँसता है मूरख और
सयाना हँसता है।
जो ओछे हैं वो हमको
ओछा कहते हैं,
जो पात्र हँसी के
हँसी उड़ाते रहते हैं।

पानी नदिया का फिर ठहरेगा
सच मानो,

आओ हम मिलकर
एक नयी शुरूआत करें,
जो अड़चन बाधाये है
उन पर बात करें।
विश्वास करो तुम सत्य
नया युग आयेगा,
मुरझाया कमल पुनःहँसकर
खिल जायेगा।

झरना सुख का फिर से हहरेगा
सच मानो,



मनोज शुक्ल

शहर पहुंचते ही बबुआ सब /श्याम श्रीवास्तव

बच्चे कितने भी बड़े हो जाएँ माँ-बाप का उनके प्रति चिंता का स्वरुप भले बदल जाए स्तर नहीं बदलता.... उनकी प्राथमिकताओं की लिस्ट में हर पल बच्चों की खैरियत की दुआ करना सबसे ऊपर होता है प्रस्तुत है एक मासूम सा गीत ........... गीतकार आदरणीय श्याम श्रीवास्तव जी जब जब रिश्तों को उकेरतें हैं मन पिघलने लगता है और खुद को उनके गीतों की नदी में उतार देता है ......घर से दूर जाते नए युग के बेटे को गाँव-बस्ती में रहने वाले पिता की ,कुशलता की जिज्ञासाएं और नसीहतें भले ही out dated लगें पर सच मानिए यही असली दौलत है जो वो अपने साथ ले जा रहा होता है.................

शहर पहुंचते ही बबुआ सब
खैर कुशल लिखना
कंजूसी मत करना, बबुआ
पूरा मन लिखना

दूरभाष से हालातों का
पता नहीं चलता
पहुँच गए कहने भर से तो
हिया नहीं भरता
कितना बड़ा मकान ,
बड़ा कितना आँगन लिखना

बड़ा शहर है बड़ी कशमकश
संयम रखना है
सीढ़ी भी चढ़नी साँपों से
बच कर रहना है
विभ्रम हो तो बबुआ
गीता रामायण पढ़ना

बहू गाँव की उधर शहर की
हवा प्रदूषित है
प्रदूषणों के साथ जोड़ना
रिश्ते वर्जित है
खर को खबरदार सन्तन को
शुभागमन लिखना



श्याम श्रीवास्तव

पत्र तुम्हारा मुझे/मुकुंद कौशल

सच्चे प्रेम की तरंगे सही स्थान पर महसूस कर ही ली जाती हैं..........शब्द नहीं सिर्फ एक संवेदनशील हृदय चाहिए ..... मुकुंद कौशल जी का गीत यही कुछ तो कह रहा है

पत्र तुम्हारा मुझे प्रेम का
ढाई आखर सा लगता है

यों तो तुमने इस चिट्ठी में
ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है
सब स्पष्ट समझ आ जाए
ऐसा भी कुछ नहीं दिखा है

किन्तु भाव भाषा से उठती
इसमे जो रसमय तरंग है
उस तरंग का रंग बहुत ही
सुन्दर सुन्दर सा लगता है

कहते हैं चिंतन के पथ पर
जो चलता है वह अरस्तु है
जीवन की हर एक लघुकथा
उपन्यास की विषयवस्तु है

अर्थ बड़ा व्यापक होता है
संकेतों में लिखे पत्र का
कम शब्दों के पानी में भी
गहरे सागर सा लगता है

आकर्षण के प्रश्न पत्र को
कब किसने जाँचा है अब तक
स्पर्शों की लिपियों को भी
अनुभव ने बाँचा है अब तक

टेटू से अंकित की तुमने
उड़ते पंछी की आकृतियाँ
तब से मुझको अपना मन भी
नीले अम्बर सा लगता है


मुकुंद कौशल

चौखट के पर्दे सा मेरा मन/ रचित दीक्षित

प्रस्तुत कर्ता/ अंकित काव्यांश

मन के मारे वन गये, वन तजि बस्ती माहिं।
कह कबीर क्या कीजिये, यह मन ठहरै नाहिं।।
लगभग 600 साल पहले बाबा कबीर कह गए कि मन ठहरता ही नही।रचित दीक्षित ने अपने नवगीत में उसी मन विचलन को विभिन्न नव प्रतीकों के माध्यम से दर्शाया है।किसी कवि का मन एक साधारण मनुष्य की तुलना में अधिक संवेदनशील माना गया है।प्रस्तुत नवगीत में भी कवि ने अनोखे विरोधाभासी बिम्बों से मन के कम्पन की तीव्रता को नया आयाम दिया है जैसे- 'कम्पन जैसे फाँसी चढ़कर मुर्दा बोला हो' या 'कम्पन जैसे पल भर में ही एक सदी कौंधी' आदि

चौखट के
पर्दे सा मेरा मन
हरदिन करता है अनगिन कम्पन

कम्पन जैसे,
चन्दन छूकर हुआ फफोला हो
कम्पन जैसे
फांसी चढ़कर मुर्दा बोला हो
कम्पन जैसे,
मृत्यु-नगर से लौटा हो जीवन।

कम्पन जैसे,
पल भर में ही एक सदी कौंधी
कम्पन जैसे,
एक ताल पर एक नदी औंधी
कम्पन जैसे,
पर्दे पर से उतरा हो सावन


रचित दीक्षित

मगहर के संत/ देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र

सच्चा रचनाकार साधक होता है और जीवन पर्यंत सिर्फ साधक ही रहना चाहता है इस बात की परवाह किये बिना कि कल उसके सृजन को किस रूप में प्रतिस्थापित किया जाएगा या उसे क्या कह कर याद किया जाएगा......... कबीर बना नहीं जाता कबीर तो मिट्टी में स्वतः पनपते हैं खाद पानी की प्रतीक्षा किये बगैर, कोयल की तरह अमराई में खुद में मगन हो कूजते हैं बिना यह सोचे कि उनको कोई सुन भी रहा होगा या नहीं , रेगिस्तान में अचानक ही किसी मरुद्वीप की तरह उग आते हैं तपते क्षणों को शीतल करने के लिए.............कुछ लेना न देना मगन रहना आज प्रस्तुत है आदरणीय देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' जी का कबीर को समर्पित एक गीत 'मगहर के संत'

काशी के पंडित हम हो लेंगे कल
आज बना रहने दो मगहर का संत

क्या होता पित्रोचित संरक्षण
क्या होता माता का रसभीना स्नेह
हमको तो अर्थहीन लगते सब
सखा, स्वजन, बंधु, द्वार, गेह

हम हैं अज्ञात वंश निर्गुणिये आज
खोजेंगे हममे गुण कल के श्रीमंत

वृंतछिन्न आँधी के पारिजात हैं
बह आये हम तट पर धार से
महकेंगे उसके ही आँचल में
उठा लिया जिसने भी प्यार से

धूल भरे गलियारे सिर्फ आज हैं
हो जायेंगे कल हम भीड़ों के पंथ

रचे नहीं पिंगल या अलंकार
चहके हम बन कर बन के पांखी
जाने कब लोगों ने नाम दिए
दोहरा, रमैनी, सबदी, साखी

पढ़े कहाँ हम पुराण निगमागम
गढ़े कहाँ कालजयी कविता के ग्रन्थ

मसि, कागद, कलम कभी गहे नहीं
वाणी ने अटपटा वही कहा
जो कुछ देखा अपने आस-पास
वह सब, जो हमने भोगा , सहा

साधारण अर्थों के गायक हैं हम
बने नहीं शब्दों के सिद्ध या महंत

अपना घर फूंक कर तमाशा अब
देख रहे हैं हम चौराहे पर
बड़े जतन से जिसको ओढ़ा था
ज्यों की त्यों धर दी लो वह चादर

जली हुयी हाथ में, लुकाठी लेकर
अनहद से मिला रहे आदि और अंत


देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र'