Wednesday, November 30, 2016

कभी कभी कैसा कैसा ये / राम स्वरुप सिन्दूर

ऐसे पल शायद हर किसी के जीवन में कभी न कभी तो आते ही हैं, जब मन के नियंत्रण से तन बाहर हो जाता है और अन्दर का सारा चिट्ठा दुनिया को कह डालता है................. अजीब अजीब
सी स्थितियाँ......पर सब स्वीकार...
जब गीत सिन्दूर जी का हो तो पाठक भावनाओं के शिखर तक पहुंचता है शृंगार रस का कोई भी पक्ष हो सम्पूर्ण मर्यादा के साथ बात रखने में सिद्ध गीतकार आदरणीय राम स्वरुप सिन्दूर जी का
एक गीत पढ़िए और गीत की तरंगों में खो जाइए
मदिरालस हर क्षण,
समाधि का क्षण होने लगता है .......................

कभी-कभी, कैसा-कैसा
यह मन होने लगता है !
नाग-डसा तन,
माटी से चन्दन होने लगता है !
अन्तर के पट
बंद न रह पाते है उच्छवासों से,
गुप्त गुहा वंशी-जैसी
बज उठती नि:श्वासों से,
घाटी में पथराया स्वर,
गुन्जन होने लगता है!
पदम-गन्ध-मकरन्द-सरोवर में
सपने तिरते हैं,
शरद-शून्य में
कुम्भ-पर्व के अमृत-मेघ घिरते हैं,
वनफूलों से
आँसू का पूजन होने लगता है !
मृगमरीचिका
मुक्ता-मणि सीपी में ढल जाती है,
तपती सिकता अतल स्रोत से
आसव छलकाती है,
मदिरालस हर क्षण,
समाधि का क्षण होने लगता है
!
प्रोफ़े. रामस्वरूप सिन्दूर

No comments:

Post a Comment