प्रस्तुत कर्ता/ अंकित काव्यांश
पानी और प्रेम दोनों के गुणधर्मों पर मंथन करते
समय कई बार मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों को परस्पर पर्यायवाची होना चाहिए
था।नदी में बहता हुआ जल ऐसा लगता है जैसे किसी व्याकुल प्रेमी की कामनाएं बैरी
दुनिया की जमीन पर संघर्ष कर रहीं हो।
साँसों की धार सहेजे किनारे रूपी दो जीवनों के
बीच बहती प्रेम की नदी का जलस्तर उस समय और बढ़ जाता है जब एक दूजे से बिछड़ने का
मौसम आ जाए।बिछड़ने से ठीक पूर्व की मनोदशा और इंतिजार का एक अरसा बीत जाने के बाद
नायक की आकुल पुकार को व्यक्त करता मेरे गुरुदेव आदरणीय श्री ज्ञान प्रकाश आकुल का
यह गीत आप सबके समक्ष-
लौट आया फिर वही मौसम
उसी नदिया किनारे
जिस नदी के तीर हमने
रेत के कुछ घर गढ़े थे,
फूल जैसे पाँव थे पर
स्वर्ग की सीढ़ी चढ़े थे,
और समयातीत होकर
प्रेम के आखर पढ़े थे,
हो रहे हैँ नैन मेरे नम
उसी नदिया किनारे
जिस नदी के तीर हमने
चाँदनी नभ से उतारी,
जिस नदी के तीर रोकी-
थी कभी रवि की सवारी,
रेत से हमने किसी दिन
माँग भर दी थी तुम्हारी
एक पल को हर विषम था सम
उसी नदिया किनारे
दिन पलासी था यही जब
तुम नदी के पार उतरे,
साथ तेरे नाव उतरी
और सब पतवार उतरे,
हम न जा पाये जहाँ सब लोग
कितनी बार उतरे
लौट आओ अब! खड़े हैँ हम
उसी नदिया किनारे
ज्ञान प्रकाश आकुल
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