इंसान की मजबूरी और समय की मगरूरी जीवन भर एक
दूसरे को परखते हैं .......कभी समय प्रश्न उछालता है तो कभी इंसान अपने त्याग और
मुसीबतों की पोटली लिए समय से सवाल करता मिलता है ........इसी जद्दोजहद को उकेरता
आदरणीय सुरेश सपन जी का गीत पढ़िए आज और स्वयम को महसूस करिए समय से जवाब माँगते इन
शब्दों में
तन में है एक थकन
मन में है एक चुभन
रास नही आया है
मौसम का परिवर्तन
मेरी ही ओर खुले
द्वार सब अभावों के
जीवन भर खेला हूँ
भूख के खिलौनों से
खुशियों के प्रेम पत्र
बाँच नही पाया मैं
परिचय है खूब मिरा
दर्द के बिछौनों से
बार बार परखा है
सुविधा ने संयम को
तोड नही पायी पर
मेरा संकल्पित मन
फूलों की चाहों में
शूलों की राहों में
मैने हर मौसम की
आरती उतारी है
खुशियों के प्रेम पत्र
बाँच नही पाया मैं
पीडा की गोद पली
ज़िंदगी बिचारी है
आँसू का जादूगर
जाने कब घोल गया
नयनों की झीलों में
हल्का सा खारापन
सौरभ की चाहत में
हर क्यारी सींची पर
खल गया बबूलों को
आम का बडा होना
द्वार द्वार भटका हूँ
मैं छाया पाने को
धूप की गुलामी का
बोझ पर पडा ढोना
सूर्य की अदालत ने
बेहद निर्ममता से
खारिज कर डाले हैं
छाया के आवेदन
सुरेश सपन
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