Wednesday, November 30, 2016

गुस्सा कर भौजी/ महेश अनघ

मन में जो भी हो कहें गीत पढने के बाद, चुप न रहें,कहें ज़रूर............ स्त्री विमर्श पर एक सशक्त रचना ..........महेश अनघ की कलम सिर्फ स्त्रियों को  उकसा नहीं  रही बल्कि सचेत कर रहीं है कि उसके हलके फुल्के प्रयास वर्तमान स्थिति को बदलने में सक्षम नहीं है अतः उसे पूरे दमखम के साथ,और पूरी हिम्मत के साथ परिस्थितयों का सामना करना पडेगा  

गुस्सा कर भौजी
कि भक्क से चूल्हा जल जाये

सत्त दाँव पर लगा ,
शाप दे दे सरकारों को
कब तक धूप दिखायेगी
इन सड़े आचारों को
कस कर चीख
कि घर में लगा शनीचर टल जाए

भैया को अखबार
तुझे पढनी है सप्तशती
गर्म हथेली हो तब ही
खिल कर मेंहदी रचती
सुई चुभो इतनी
कि पाँव की फांस निकल जाए

जिन्न उतरता नहीं
उपासे बदन धूजने से
सींग नरम हो जाते हैं क्या
बैल पूजने से
अपनी धरती देख
भाड़ में अतल-वितल जाए

उठा बुहारी चल बैठक में
कितनी बदबू है
जाहिर होने दे जग में
तू है तू है तू है
इतना घूंघट खोल
कि एक गृहस्थी चल जाए


महेश अनघ

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