प्रस्तुतकर्ता/ महिमा श्री
छायावादी धारा के प्रमुख कवियों में जयशंकर
प्रसाद जी के कई गीत मुझे प्रिय है । पर स्वाभावत: मुझे यह गीत आकृष्ट करता है ।
घोर विसंगतियों , तनाव पूर्ण भाग-दौड़ भरे जीवन के सापेक्ष यह गीत मेरे मन के भावों
को शब्द देता चलता है । इस गीत में ईश्वर को संबोधित करते हुए विश्वास , अध्यात्म , दर्शन, छायावाद की
कलात्मकता और रचनाशीलता के सहारे प्रकृति और मानवता को केन्द्र में रख कर आत्म
प्रसार की आंकाक्षा का विस्तार है
ले चल वहाँ भुलावा देकर,
मेरे नाविक! धीरे धीरे।
जिस निर्जन मे सागर लहरी।
अम्बर के कानों में गहरी
निश्चल प्रेम-कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे।
जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,
ढोले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो
ताराओं की पाँत घनी रे ।
जिस गम्भीर मधुर छाया में
विश्व चित्र-पट चल माया में
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई,
दुख सुख वाली सत्य बनी रे।
श्रम विश्राम क्षितिज वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से
अमर जागरण उषा नयन से
बिखराती हो ज्योति घनी रे!
Nice poem
ReplyDeleteGood job
ReplyDeleteNice
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