प्रस्तुतकर्ता/ शैलेन्द्र शर्मा
मित्रों ! इस स्तंभ के अंतर्गत मैं जिस गीत को
आपसे साझा करने जा रहा हूं उसकी प्रस्तुति से पूर्व मेरे ज़ेहन में गोस्वामी
तुलसीदास जी की पंक्तियां उभर रही हैं " ढोल-गवांर-सूद्र -पसु-नारी. सकल
ताड़ना के अधिकारी " अपनी बात पूरी करने के लियेइन पंक्तियों के साथ मैं अपनी
दो पंक्तियां जोड़ता हूं-" राजतंत्र से लोकतंत्र तक उक्ति शोशितों पर यह
भारी. तीर वही हैं वही निशाने बदला है तरकश " यह सच है आज हमारे देश में
आबादी के शेष 50% को वे सारे अधिकार प्राप्त हैं जो पुरुष वर्ग को प्राप्त हैं.देश
में निम्न से लेकर उच्च से उच्च पदों को नारियां सुशोभित कर रही हैं बावजूद इसके
पुरुषों के हर वर्ग में अधिकान्शत: सामंतवादी प्रवित्ति के चलते नारी का
शोषण/उत्त्पीड़न हो रहा है. अभी आपसबने कुछ दिन पूर्व समाचार पत्रों में पढा होगा
कि कानपुर के एक
संपन्न परिवार के युवक ने अपनी प्रेमिकाके लिये
अपनी पत्नी को भाडे के हत्यारों द्वारा कत्ल करा दिया. कहने का तात्पर्य यह है कि
पुरुष की सामंती प्रव्रित्ति में अधिक परिवर्तन नही आया है. कमोवेश हर वर्ग की
नारियां किसी न किसी रूप में शोषण/उत्पीड़न का शिकार हैं.नारी उत्पीड़न पर श्रीअवध
विहारी श्रीवास्तव जी की एक बहुत ही मार्मिक रचना प्रस्तुत कर रहा हूं –
बहू का बयान...........
जितना खिड़की से दिखता है
उतना ही ' सावन 'मेरा
है
निर्वसना नीम खडी बाहर
जब धारों धार नहाती है
यह देह न जाने कब कैसे
पत्ती-पत्ती बिछ जाती है
मन से जितना छू लेती हूं
बस उतना ही घन मेरा है
शृंगार किये गहने पहने
जिस दिन से घर में उतरी हूं
पायल बजती ही रहती है
कमरों-कमरों में बिखरी हूं
कमरों से चौके तक फैला
बस इतना ' आंगन ' मेरा
है
डगमग पैरों से बूटो को
हर रात खोलना मज़बूरी
बिन बोले देह सौंप देना
मन से हो कितनी भी दूरी
हैं जहां नहीं नीले निशान
बस उतना ही ' तन ' मेरा
है
एक स्त्री के दर्द की मार्मिक अभिव्यक्ति.... यह गीत मैंने अवध बिहारी जी से लखनऊ में सुना था
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