Tuesday, December 6, 2016

कैसे बीता अपना जीवन/ अवध बिहारी श्रीवास्तव

प्रस्तुतकर्ता/कृष्ण नंदन मौर्य

आदरणीय अवधबिहारी श्रीवास्तव जी के नवगीतों में पाठक को जो सबसे पहले आकृष्ट करता है वह है उनकी सहजता। रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातों को लेकर बुने गये ये नवगीत संवेदनाओं को गहन अभिव्यक्ति देतें हैं। इन्हें पढ़ते हुये लगता है कि हाँ ऐसा ही तो है। अपने पढ़ने वालों से आत्मीय बतकही करते, सीधे-सादे। घर-समाज, गाँव-देश, रिश्ते-नाते, राजनीति सब इनमें ढलकर एक देशज-गंध से गमकने लगते हैं। ऐसे अनेक गीतों में से एक गीत आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ,,, जो मैं कहने में असमर्थ हूँ वह यह रचना बोलेगी-

कल सोच रहा था पड़े-पड़े
कैसा बीता अपना जीवन।
टेढ़े मेढ़े काँटों वाले
रस्तों की याद नहीं भूली
माँ की धोती से सिले हुए
बस्तों की याद नहीं भूली
दोनों जेबों में भुने चने
गुड़ की भेली वह भाग-दौड़
लहसुन-मिर्चे की चटनी था
चूल्हे की रोटी था बचपन।

हाथों में लेकर हाथ
देखना मेहँदी रची हथेली को
आँखों में आँखें डाल
देखना पीछे खड़ी सहेली को
ये चित्र पसीने से धुँधले
हो गये रोटियों की खातिर
फिर छूट गई फूली सरसों
फिर छूट गई माँ, बड़ी बहन।

बाबू से काका के झगड़े
भइया से चाचा की अनबन
बँट गये एक ही झटके में
बाबा, दादी, पूजा, आँगन
घर का बँटवारा, गाँव बँटा
कुछ इधर हुये कुछ उधर हुए
पीढ़ी दर पीढ़ी कथा यही
अपना अषाढ़ अपना सावन।


श्री अवध बिहारी श्रीवास्तव

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