Sunday, December 4, 2016

देवेन्द्र सफल /जाने कितने दर्पण बदले


कानपुर शहर गीतकारों का शहर है ..... देवेन्द्र 'सफल' के गीत कानपुर के गीत साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ...... दुरूह से दुरूह विषय को भावुकता और माधुर्य के साथ प्रस्तुत करना उनके गीतों की विशेषता है ....कलापक्ष का कसापन उनके गीतों को याद रखने योग्य बनाता है प्रस्तुत गीत की विषयवस्तु ने मुझे आकर्षित किया एक ऐसा विषय जिस पर सबसे अधिक कार्य किये जाने की आवश्यकता है  गीत समाज की बंद आँखों को खोलने का प्रयत्न है ......अंधविश्वास रूढ़िवादिता धर्मान्धता रोग हैं ,ये बेड़ियाँ हैं जो किसी भी समाज जाति या देश की प्रगति में सबसे बड़ी रुकावट होती हैं ...इनके बारे में बात करना बहुत ज़रूरी है


जाने कितने दर्पण बदले .......

चाँद सितारे छूकर भी हम
मन से अभी आदिवासी हैं

घिरे हुए मोहक घेरे से
जिनके रंग-बिरंगे फंदे
इन फंदों में सभी फंसे हैं
मूरख ज्ञानी-ध्यानी बन्दे
मुख्य पृष्ठ पर अभी जमे हैं
जो सन्दर्भ हुए बासी हैं

तंत्र मन्त्र के जाल बिछे हैं
स्वांग सरीखे जादू टोने
दिशाशूल ,अपशगुन से डरे
माथे माथे लगे दिठौने
हम सब तिलक भभूत लगाये
सर धुनते मघहर काशी हैं

भूमंडलीकरण की बातें
लेकिन मन में बसे कबीलें
सब पर गहरे रंग चढ़े हैं
लाल हरे औ' नीले पीले
अणुबम सर पर लादे फिरते
पर खुशियों के अभिलाषी हैं

जाने कितने दर्पण बदले
लेकिन खुद को बदल न पाए
गहन अँधेरे मिटे न मेटे
कहने को हैं दीप जलाए
भयवश पलकें बंद न होतीं
सुख के सपने अविनाशी हैं


देवेन्द्र सफल

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