नवगीत के प्रारंभिक पुरोधाओं में आदरणीय श्री
देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी के संग्रह 'अनंतिमा' से उनका 'समय-सन्दर्भ 'शीर्षक से प्रस्तुत एक गीत -जगदीश पंकज
'समय-सन्दर्भ '
यह समय कितना कड़ा है
सामना जिससे पड़ा है।
स्तब्ध सन्नाटा
हवा में
खंख पीपल खड़खड़ाता
सुन रहा हूँ
नींद में कोई
निरंतर बड़बड़ाता
दृश्य उफ़ कितना भयावह
कील-सा मन में गडा है।
बाल बिखरे
रक्त-रंजित
पीठ कुबड़ी, छिले काँधे
पेट पिचका
नील-लोहित
सांकलों ने हाथ बांधे
रेत पर जल आँकता यह
देश संसद से बड़ा है।
यह हलाकू की
सवारी
राजपथ से जा रही है
काट डाली
जीभ इसने
बात इतनी-सी कही है
आप सेनापति महज थे
युद्ध तो हमने लड़ा है।
( 'अनन्तिमा' से )
देवेन्द्र
शर्मा 'इन्द्र'
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