प्रस्तुत है मनोज शुक्ल 'मनुज' का एक गीत......मुखौटो
को पहने जी रही आज की सदी पर खरा उतरता है
यह गीत ............
दिखने औ होने का अंतर
यह समाज का ताना बाना
भीतर बहुत सड़ा लगता है
डूब रहे हैं ब्रह्म ज्ञान बतलाने वाले
भौतिकता में
अनुवादक का नाम बहुत है कविताओं की
मौलिकता में
भ्रष्टाचारी बातें करते हैं केवल
ईमान धर्म की
आकांक्षा बिन किये मिले सब
बातें पर निष्काम कर्म की
सत्य संकुचित हो कर सिकुड़ा
झूठा बड़ा धड़ा लगता है
प्रतिभाओं को घिसट घिसट कर
जीवन यापन करते देखा
फटे पुराने कपड़ों में लिपटा
कंचन सा यौवन देखा
मैं तो आडम्बर को बैठे बैठे
पूजते देख चुका हूँ
शुचिता के जलते दीपक को
असमय बुझते देख चुका हूँ
खोया खोया है बेकल सा
खुद से बहुत लड़ा लगता है
सारी जनता लगी हुयी है रावन की
जय जयकारों में
लक्ष्मण सदा व्यस्त रहता है
सूपर्णखा की मनुहारों में
राम और लंकापति अब
समझौतों की बातें करते हैं
भरत शत्रुघ्न मिलकर अपने
भ्राता से घातें करते हैं
योगी से भोगी का जीवन
मुझको बहुत कड़ा लगता है
मनोज शुक्ला ‘मनुज’
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