एक भरापूरा परिवार धीरे धीरे आँगन से विदा होता
है और शून्य से आरम्भ की गयी गिनती पुनः शून्य तक आ जाती है............. अभिभावक, एवं घर के बुजुर्ग
जिनके हाथ भावविभोर हो बच्चों के जल्दी से बड़े हो जाने की कामना करते हैं घर में
गूंजती अपनी ही आवाजों से अचानक ठिठक जाते हैं..........साथ ही अधिकारों के कटते
वृक्ष जीवन से शनैः शनैः हरियाली भी छीनते जाते हैं ऐसे में आम आदमी क्या सोचता है
हम सब जानते हैं पर एक कवि मन इस स्थिति को कुछ यों गुनगुनाता है ............
लम्बी आह के साथ पढ़िए एक अनुभवी लेखनी का जीवन अनुभव.........आज 25 जनवरी के दिन
आदरणीय रामस्वरूप 'सिन्दूर' जी की पुण्यतिथि पर उनको भावांजलि अर्पित करती हूँ उनके ही एक गीत 'सुनामी ज्वार रह गया
हूँ' के
माध्यम से.............
मैं जबरन सेवा निवृत्त अधिकार रह गया हूँ
केवल एक व्यक्ति वाला संसार रह गया हूँ
अपनों के अपने अपने
परिवार हो गए हैं
अपनी अपनी रुचियों के
घर-द्वार हो गए हैं
मैं, जन-गण-प्रिय रहा, बंद अखबार रह गया हूँ
चुपके चुपके मैं सबकी
आहट ले आता हूँ
पूरे कवि-मन से सबकी
खैरियत मनाता हूँ
मैं रत्नाकर था सागर की क्षार रह गया हूँ
आज हुआ बदरंग न जाने
कल कैसा होगा
सब काफूर हुआ, जीवन का
भोगा अनभोगा
मैं था कल लखनऊ, आज हरद्वार हो गया हूँ
मैं स्वजनों के बीच
अपरिचित सा रहा लेता हूँ
कुशल-क्षेम पूछे कोई,
'बढ़िया' कह देता हूँ
मैं अब अपने लिए सुनामी ज्वार रह गया हूँ
रामस्वरुप सिन्दूर
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