कानपुर के गीतकारों में शैलेन्द्र शर्मा जी का
नाम बहुत आदर से लिया जाता है जीवन की विसंगतियों पर बहुत सहजता से बात करती हैं
उनकी रचनाएं कोई शिकवा नहीं कोई तंज नहीं सिर्फ स्थितियां भर उकेरते हैं वो अपनी
रचनाओं में मकसद स्वयमेव स्पष्ट हो जाता है ....कड़वी गोली भी सहजता से बिना sugar में coat किये, बातों में बहलाते हुए गले
के नीचे उतार देते हैं ....... ऐसा ही एक गीत आज प्रस्तुत है
मोबाइल पर कभी- कभी वो
बातें कर लेता
सुननी होगी घर-डेवढी की
पोर-पोर टूटन
इसीलिये गढ लेता पहले ही
झूठी उलझन
कह कर ' हलो ' शुरू
हो जाता
तनिक नहीं रुकता
'आना
था पर नहीं आ सका
मैं पिछले हफ़्ते
छोटू को ज्वर तेज बहुत
दिन-रात नहीं कटते
मँहगी बहुत दवाएँ, पैसा-
पानी सा बहता
भरनी फ़ीस बडे बेटे की
सिलनी यूनीफ़ार्म
घडी खराब पडी हफ्तों से
बजता नहीं अलार्म
रोज लेट हो जाता घुड़की
अफ़सर की सुनता
इसी माह रानी का वादा
पूरा करना है
वर्ष-गाँठ में सूट सिलाना
तोहफा देना है
आखिर है जीजा साली का
नाज़ुक जो रिश्ता
भरसक कोशिश करूँगा फ़िर भी
मैं घर आने की
करना कोशिश किंतु स्वयं ही
कर्ज चुकाने की
जितना मिलता उसमें घर का
खर्च नहीं चलता
सुनने की बारी पर कहता
' कम
बैलेन्स बचा '
रस्म निभाने का है उसने
यों इतिहास रचा
' अच्छा....बाई
' कह कर उसका
मोबाइल कटता
शैलेन्द्र शर्मा
No comments:
Post a Comment