प्रस्तुतकर्ता/ रामशंकर वर्मा
सभी मित्रों को नमस्कार। आज प्रस्तुत है हिन्दी
के सुप्रसिद्ध आलोचक डाक्टर रामविलास शर्मा का खूबसूरत नवगीत। मैं इसे नवगीत ही
कहता हूँ। कारण इसका अप्रतिम विम्ब विधान और सहज लय। चमत्कृत करता बसंत की भोर, प्रातः का जो
एंद्रजालिक रूपविधान इस गीत में है, उसका द्रश्यांकन सरल नहीं है। यह गीत मैंने बरसों पूर्व कहीं पढ़ा था
और लिख लिया था। यह मेरे प्रिय गीतों में से एक है।
सुना आपने?
चाँद बहेलिया
जाल सुनहरा कंधे पर ले
चावल की कनकी बिखेर कर
बाट जोहता रहा रात भर
किन्तु न आयीं नीड़ छोड़कर किरण बयाएं!
सुना आपने?
फाग खेलने वाली क्वाँरी कन्याएँ पलाश की
केसर घुले कटोरे कर मे लिए
ताकती खड़ी रह गईं
ऋतुओं का सम्राट पहन कर पीले चीवर
बौद्ध हो गया
सुना आपने!
अभी गली में ऊंची ऊंची
घेरेदार घंघरिया पहने
चाकू छुरी बेचने वाली इरानियों की निडर चाल से
भटक रहीं थी लू की लपटें
गलत पते के पोस्टकार्ड सी
सुना आपने!
मोती के सौदागर नभ की
शिशिर भोर के मूँगे के पट से छनती
पुखराज किरन सी स्वस्थ युवा अनब्याही बेटी
उषाकुमारी
सूटकेस में झिलमिल करते मोती माणिक नीलम पन्ने
लाल जवाहर सब सहेज कर
इक्के वाले सूरज के संग हिरन हो गयी!
मोती के सौदागर नभ की
बेशकीमती मणी खो गयी
सुना आपने!
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