Tuesday, December 6, 2016

हट के-हट के चलो/ मुकुटबिहारी सरोज

मुकुट बिहारी 'सरोज' जी का ये गीत हर काल में प्रासंगिक है ......कथ्य के साथ भाषा की सहजता और अंत्यानुप्रास की रोचकता ने गीत को विशेष बना दिया ...............


भीड़-भाड़ में चलना क्या ?
कुछ हट के-हट के चलो

वह भी क्या प्रस्थान कि-
जिसकी अपनी जगह न हो
हो न ज़रूरत, बेहद जिसकी,
कोई वज़ह न हो,
एक-दूसरे को धकेलते,
चले भीड़ में से-
बेहतर था, वे लोग निकलते
नहीं नीड़ में से
दूर चलो तो चलो
भले कुछ भटके-भटके चलो

तुमको क्या लेना-देना
ऐसे जनमत से है
ख़तरा जिसको रोज,
स्वयं के ही बहुमत से है
जिसके पाँव पराए हैं जो
मन से पास नहीं
घटना बन सकते हैं वे,
लेकिन इतिहास नहीं
भले नहीं सुविधा से -
चाहे, अटके-अटके चलो

जिनका अपने संचालन में
अपना हाथ न हो
जनम-जनम रह जाएँ अकेले,
उनका साथ न हो
समुदायों में झुण्डों में,
जो लोग नहीं घूमे
मैंने ऐसा सुना कि
उनके पाँव गए चूमे
समय, सँजोए नहीं आँख में,
खटके, खटके चलो ।


मुकुट बिहारी सरोज 

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