नाद में "नीरव"मिलन की कामना बेकार ।'इस गीत को
पढते-पढ़ते मैं पता नहीं क्यों इस पंक्ति पर जाकर ठहर जाता हूँ । मेरा मन स्व से
संवाद स्थापित करता है तो अंतःकरण स्वतः मुखर होता है -मौन का संवाद । इस दृष्टि
के दृष्टात की कथा को विस्तार देता यह गीत ओम नीरव जी का है ।
इस जगत की जीत से तो,
भली लगती हार ।
इसलिए आओ चलें,
धुंध के उस पार ।
देह दलदल में फँसे हैं,
साधना के पाँव ।
दूर काफी दूर लगता,
साँवरे का गाँव ।
क्या उबारेंगे. कि जिनके,
दलदली आधार ।
इसलिए आओ चलें,
धुंध के उस पार ।
पल अतिथि..,पलभर ठहर,
कर लूँ तनिक सत्कार ।
हाय निर्मम चल दिया तू,
हो लिया उस पार ।
है जहाँ पल भी न अपना,
क्या करें मनुहार?"
इस लिए आओ चलें,
धुंध के उस पार ।
भूत और भविष्य की,
युग-संधि यह संसार ।
और जिसमें जी रहे,
वर्तमान असार ।
मैं निरंतर ही ठगा,
जाता रहा इस पार ।
इसलिए आओ चलें,
धुंध के उस पार ।
साथ जीवन के निरंतर,
मौत का संवाद ।
धर्म ज्यों कुरुक्षेत्र में,
उभरा हुआ भय नाद ।
नाद में नीरव मिलन की ,
कामना बेकार ।
इसलिए आओ चलें,
धुंध के उस पार ।
ओम "नीरव"
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