समय के साथ जीवन की बढ़ती जटिलताओं ने आचार-
व्यवहार, सोच-विचार
सब को प्रभावित किया है ..........सादगी खो रही है...... आदर्श समाप्त हो रहे हैं
........ स्वार्थ और अहम् जैसे मानसिक प्रदूषण इंसानियत को धीरे धीरे नष्ट कर रहे
हैं .....कुछ इन्ही संजीदा भावों को पढ़िए और महसूस करिए मनोज जैन 'मधुर' जी के गीत में
.....
खोने लगे अस्मिता अपनी
धीरे- धीरे गाँव।
राज पथों के सम्मोहन में
पगडंडी उलझी।
निर्धनता अनबूझ पहेली,
कभी नहीं सुलझी।
काले कौवे अनाचार के
उड़ उड़ करते काँव।
राजनीति की बाहें पकड़ीं
पकड़ लिया है मंच।
बंटवारा बंदर सा करते
सचिव और सरपंच।
पश्चिम का परिवेश जमाये
अंगद जैसा पाँव।
छोड़ जड़ों को निठुर
शहर की बातों में आते।
लोकगीत को छोड़ गीतिका
पश्चिम की गाते।
सीख रहीं हैं गलियां चलना
आज शकुनि -से दाँव।
दंश सौतिया झेल रहीं हैं,
बूढ़ी चौपालें।
अपनी ही जड़ लगीं काटने
बरगद की डालें।
ढूंढ रही निर्वासित तुलसी
घर में थोड़ी ठाँव
मनोज जैन मधुर
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