आदरणीय देवेन्द्र शर्मा इंद्र जी को प्रणाम करते
हुए प्रस्तुत है उनका एक अद्वितीय गीत...जो गीत का स्वरुप क्या होना चाहिए को
परिभाषित कर रहा है .........
गीत का शाश्वत होना यों ही तो नहीं...एक गीत जब उगता
है तो वह ठीक उस अनाज की तरह निरपेक्ष होता
है जिसका धर्म सिर्फ भूख मिटाना होता है बिना उंच नीच का भेद किये हुए ...........वो
एक गम्भीरमार्ग दर्शक की तरह होता है जो सही दिशा और गलत दिशा का भान करवाता है मार्ग आपको
चुनना है वो उस गुरु की तरह होता है जो गुण और अवगुण में भेद करना सिखाता है .....उस
वाचक की तरह होता है जो स्थितियों का सही सही
चित्र सामने रखता है तभी कोई गीत आत्मविश्वास के साथ कह सकता है 'मैं न कोई पथ-प्रदर्शक मैं न अनुचर
हूँ! साथ रहकर भी, सभी के
मैं समांतर हूँ!..............
मैं नवांतर....................
मैं न कोई पथ-प्रदर्शक
मैं न अनुचर हूँ!
साथ रहकर भी, सभी के
मैं समांतर हूँ!
नाद हूँ मैं, प्रणव हूँ मैं
शून्य हूँ मैं, मैं न चुकता
कालयात्री हूँ, स्थविर हूँ
मैं न चलता, मैं न रुकता
आदि-अंत-विहीन हूँ मैं
मैं निरंतर हूँ!
मैं सृजन का हूँ अनुष्टुप
लय-प्रलय के गान मुझे में
रत्न-मणि मुक्ता धरे
डूबे हुए जलयान मुझमें
ज्वार-भाटों से भरा
अतलांत प्रांतर हूँ!
मैं नहीं हूँ दिव्य धन्वा
निष्कवच सैनिक विरथ हूँ
व्यूह-वलयित समर-जेता
मैं किसी इति का न अथ हूँ
मैं न सत्तापक्ष में हूँ
मैं समांतर हूँ!
मैं अंधेरे की शिला पर
ज्योति के अक्षर बनाता
मुझे परिभाषित करो मत
मैं स्वयं अपना प्रमाता
गीत हूँ, नवगीत हूँ मैं
मैं नवांतर हूँ!
देवेन्द्र शर्मा इंद्र
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