आज आप सभी सुधिजनों के साथ कविवर श्री कृष्ण सरोज
जी का एक गीत साझा कर रहीं हूँ सरोज जी प्रेम और विरह के ऐसे जीवन्त गीत रचते हैं
कि उस संवेदना से जुड़कर मन कैसा -कैसा सा हो जाता है-अद्भुत है यह गीत
अनसुने अध्यक्ष हम...............
बाँह फैलाये खड़े निरूपाय
तट के वृक्ष हम
ओ नदी ,दो चार पल ठहरो हमारे पास भी
चाँद को छाती लगा-फिर
सो गया नीलाभ जल
जागता मन के अँधेरों मे
घिरा निर्जन महल
और इस निर्जन महल के
एक सूने कक्ष हम
ओ दमकते जुगनुओं! उतरो हमारे पास भी
मोह में आकाश के हम
जुड़ न पाये नीड़ से
ले न पाये हम प्रशंसा पत्र
कोई भीड़ से
अश्रु की उजली सभा के
अनसुने अध्यक्ष हम
ओ कमल की पंखुरी बिखरो हमारे पास भी
ओ जलद केशा प्रिया !
संवरो हमारे पास भी
लेखनी को हम बनायें
गीतवंती बांसुरी
ढूंढते परमाणुओं की धुंध में
अलकापुरी
अग्नि घाटी में भटकते एक शापित यक्ष हम
किशन सरोज
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