एक साहित्यकार,
लिखता है बहुत कुछ लिखता है, जीवन, समाज, राजनीति,और व्यवस्था, के हर अच्छे बुरे
पहलू पर अपना नज़रिया सबके सामने रखता........मगर कुछ साहित्यकार इससे भी हटकर कुछ
और भी करते हैं....वो चुपचाप साहित्य की इस मिटटी में नए पौध रोपते हैं बीज डालते
हैं.......उन्हें तन्मयता से सीचते हैं निराई गुडाई कर उन्हें पूरे प्यार से बढ़ते
हुए देख कर खुश होते हैं .....स्वयम से अधिक उनका समय उन पौधों की देखरेख में
व्यतीत होता है,ठीक एक माली की तरह ....... नई संभावनाओं के पोषक......... इसी
श्रेणी में शामिल करूंगी मैं पूर्णिमा वर्मन जी को .......उनके विषय में कुछ लिखते
समय थोड़ी भावुक हूँ ....... और मैं ही क्यों 'नवगीतकी पाठशाला' से जुड़ा हर नया सदस्य जिनको उन्होंने लिखने के लिए सिर्फ प्रेरित ही
नहीं किया अपितु सबके सामने आने का मौक़ा और साहस भी दिया ऐसा ही महसूस करेगा
................तमाम आलोचनाओं के बीच पूर्णिमा जी कबीर के इकतारे पर बजती साखियों
जैसी आगे चल रहीं हैं और हम सब उनकी धुन पर मस्त हैं.................
शुक्रिया पूर्णिमाजी खुश रहिये स्वस्थ रहिये और
अपना सकारात्मक नज़रिया यों ही बनाए रखिये................प्रस्तुत है पूर्णिमा जी
का एक गीत नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ
एक और साल...
लो बीत चला एक और साल
अपनों की
प्रीत निभाता सा
कुछ चमक–दमक बिखराता सा
कुछ बारूदों में उड़ता सा
कुछ गलियारों में
कुढ़ता सा
हम पात पात वह डाल डाल
लो बीत चला एक और साल
कुछ नारों
में खोया खोया
कुछ दुर्घटनाओं में रोया
कुछ गुमसुम और उदासा सा
दो पल हँसने
को प्यासा सा
थोड़ी खुशियाँ ज्यादा मलाल
लो बीत चला एक और साल
भूकंपों
में घबराया सा
कुछ बेसुध लुटा लुटाया सा
घटता गरीब के दामन सा
फटता नभ में
दावानल सा
कुछ फूल बिछा कुछ दीप बाल
लो बीत चला एक और साल
कुछ शहर
शहर चिल्लाता सा
कुछ गाँव गाँव में गाता सा
कुछ कहता कुछ समझाता सा
अपनी बेबसी
बताता सा
भीगी आँखें हिलता रूमाल
लो बीत चला एक और साल
पूर्णिमा वर्मन
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