Thursday, December 8, 2016

देख कच्ची गार सा मन/निशा कोठारी


न कोई रंग न कोई आकृति फिर भी हर रंग में दिखता है हर रूप में ढल जाता है तो कभी ढाल देता है ........बिना आवाज़ हर समय बोलता है ...बिना पंख उड़ता है.......अजब मायावी है ये मन....... और क्या-क्या है, कैसा है ये मन , जानते हैं निशा कोठारी के गीत में ..............

देख कच्ची गार सा मन.............

है बड़ा मुश्किल इसे यूँ
समझना फिर-फिर
बदलते संसार सा मन

भाव आता बीत जाता
एक पल भी टिक न पाता
अंजुरी के जल सरीखा
बूँद बनकर रीत जाता

बस किनारों को भिगोकर
लौटता फिर-फिर
इक नदी की धार सा मन

स्वप्न शिखरों पर चढ़े ये
पाठ सच के भी पढ़े ये
चेतना के चित्र पर फिर
नित नए फ़रमे मँढ़े ये

मूर्तियां गढ़कर निरंतर
डोहता फिर-फिर
देख कच्ची गार सा मन

विगत में रहता विचरता
और आगत से सिहरता
आज की शाश्वत तहों का
अक्स अक्सर ही बिखरता

कल्पनाओं के मुताबिक
दीखता फिर-फिर

मेघ के आकार सा मन

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