आज का गीत मंच के सम्राट किशन सरोज जी लिखा हुआ
है | ये
गीत मुझे पहली बार ही पढ़ते हुए ऐसे लगा जैसे सचमुच मन ताल की सतह सा हिला हो
...माना विषय असफल प्रेम की पीड़ा है ....मगर शब्द ऐसे कि जैसे दर्द की उस ऊंचाई को कोई छू ही नहीं पाया आज
तक | जितनी
बार पढ़ा उतनी बार ही मन पानी की सतह जैसा हो गया |
इस गीत की संवेदनाएं झंकृत करती हैं अदृश्य तारों
को ....आप भी पढ़िए ...
'' ताल-सा हिलता रहा मन ''....
धर गए मेहंदी रचे
दो हाथ जल में दीप
जन्म-जन्मों
ताल-सा हिलता रहा मन
बाँचते हम रह गए
अंतर्कथा
स्वर्णकेशा गीत-वधुओं
की व्यथा
ले गया चुन कर कमल
कोई हठी युवराज,
देर तक
शैवाल-सा हिलता रहा मन
जंगलों का दुख
तटों की त्रासदी
भूल, सुख से सो गयी
कोई नदी
थक गयी लड़ती हवाओं से
अभागी नाव
और झीने
पाल-सा हिलता रहा मन
तुम गए क्या
जग हुआ अंधा कुआँ
रेल छूटी रह गया
केवल धुआँ
गुनगुनाते हम भरी आँखों
फिरे सब रात
हाथ के
रूमाल-सा हिलता रहा मन
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