''बारिश के धागों से
गीत बुने हैं हमने
नम तो होंगे ही''
बेशक़ रचनाकार सिर्फ रचनाकार होता है स्त्री या
पुरुष नहीं किन्तु स्त्री मन की वेदनाएं, संवेदनाएं, आक्रोश, प्रश्न, खुशियाँ, उल्लास, जितना एक स्त्री रचनाकार की रचनाओं में सच्चाई से मुखर होता क्या
कहीं और हो सकता है .......... सहमति या असमति आप पर छोड़ती हूँ .........आज गीत
प्रस्तुत है प्राची सिंह की कलम से ...............
पूछता है प्रश्न
सहचारित्व मेरा-
गर्व था
जिन लब्धियों पर, सोच पर
-सब
नकारीं
मूँछ तुमने ऐंठ कर,
फूल सा कोमल हृदय
बिंधता रहा
‘मैं’ घुसा दिल में तुम्हारे
पैंठ कर
यह सजा है स्त्रीत्व की
या कर्मफल है
जो तिरोहित हर घड़ी अहमित्व मेरा?
पूछता है प्रश्न....
सब सहेजीं
पूर्वजों की थातियाँ
किरचनें टूटे दिलों की
जोड़ कर,
पंख औ’ पग
बाँध बेड़ी जड़ किये
देहरी में
मुस्कराहट ओढ़कर I
नींव के पत्थर सरीखी ज़िंदगी पर
क्यों घरौंदा रेत का,स्थायित्व मेरा?
पूछता है प्रश्न....
सप्तरंगी स्वप्न थे
भावों पगे-
पर तुम्हे लगते रहे
सब व्यर्थ हैं,
रौंद कर कुचले गए
हर स्वप्न के
चीखते अब
सन्निहित अभ्यर्थ हैं I
नित अहंकृत-
पौरुषी ठगती तुला पर
क्यों भला तुलता रहे व्यक्तित्व मेरा?
पूछता है प्रश्न..
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