कसमे वादे प्यार वफ़ा सब बातें है बातों का क्या
कोई किसी का नहीं ये झूठे नातें हैं नातों का
क्या
जैसे भाव जब मनोज जैन 'मधुर' जी की कलम से निकलते
हैं तब पाठक उन्हें सहजता से आत्मसात करता चला जाता है, व्याकुल नहीं होता, इन सारे प्रश्नों
को एक स्वाभाविक प्रक्रिया मान कर
और उन्हें नज़रंदाज़ कर जीवन जीने के लिए सकारात्मक
रूप से प्रेरित हो उठता है ........ मनोज जी की यही सहजता पाठकों को आकर्षित करती
है उनके गीतों के प्रति
भीड़ में
मैं हूँ अकेला।
भीड़ में तू
है अकेला
बन्धनों में
कसमसाते,
स्वार्थ के सम्बंध सारे।
कह रहा हूँ
मान ले मन,
ढूंढ मत झूठे सहारे।
दृष्टि में जो दृश्य
तुझको दिख रहा,
झूठे जगत
का है झमेला।
कौन किसके साथ
कितना चल सका
इतना बता दे।
थिर यहां क्या है,
पता हो तो मुझे,
उसका पता दे।
आज नीरवता यहां
महसूसता है,
कल तलक लगता
रहा है एक मेला।
कौन से पथ पर
बता दे मन मुझे
तू ले चलेगा।
कब पुरुस्कृत
तू करेगा किस घड़ी
मुझको छलेगा।
मैं भंवर के पास आकर
इन तटों से पूछ्ता
कैसा नियति ने
खेल खेला ?
भीड़ में मैं
हूँ अकेला।
भीड़ में तू
हैअकेला।
मनोज जैन 'मधुर"
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