प्रगति ज़रूरी है चाहे वो सामाजिक हो भौतिक हो या
मानसिक .....निश्चित ही हर बदलाव सोच में व्यवहार में विचारों में बदलाव को भी
साथ लाता है ...ये परिवर्तन कुछ खट्टे कुछ मीठे तो कुछ
कैसैले ................. हम प्रगति चाहते हैं
बदलाव चाहते हैं किन्तु कुछ मूलभूत संवेदनाओं के preservation
के साथ .......बदलाव के कुहासे में गुम हुए इन्ही
कोमल अहसासों को
याद करता एक गीत आदरणीय कृष्ण बक्षी जी का
......................
पास हमारे
चंदन वन थे
कहाँ गये ।
कुँए पर
पानी भरती
महिलाओं का बतियाना ।
अम्माँ भोज़ी
काकी मौसी
कहकर उन्हें बुलाना ।।
रिश्तों के गहरे
बंधन थे, कहाँ गये।।
हल्ला गुल्ला
शोर शराबा,
बच्चों की किलकारी।
छीन ले गया
वक़्त हाथ से
पूँजी सभी हमारी।।
हरे भरे, घर के
आँगन थे, कहाँ गये।।
चोपालों पर
धमा चौकड़ी
आल्हा उदल गाना।
बैठे - बैठे
बुझे आलवों को
फिर से सुलगाना।।
यही हमारे जनगण-
मन थे, कहाँ गये
कृष्ण बक्षी
No comments:
Post a Comment