Tuesday, November 29, 2016

अपना तो इतना सामान ही रहा/ उमाकांत मालवीय

वाह !!!! क्या बोलता बतियाता हुआ गीत है ..........गीत की एक एक पंक्ति के साथ हुंकारा खुद-ब-खुद निकल रहा है ............. हलकी सी मुस्कराहट के साथ मानो किसी अभिन्न मित्र की बात सुन रहे है .................और सोच रहे हैं हाँ यही सब तो ,ठीक यही सब तो हम भी कहना चाह रहे थे पर लो पहले तुम ने कह दिया :)
तो आइये पढ़ते हैं उमाकांत मालवीय जी का एक गीत जो किसी भी स्वाभिमानी रचनाकार मन की बात हो सकती है

एक चाय की चुस्की 
एक कहकहा 
अपना तो इतना सामान ही रहा ।:
चुभन और दंशन 
पैने यथार्थ के 
पग-पग पर घेर रहे 
प्रेत स्वार्थ के । 
भीतर ही भीतर 
मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।
एक अदद गंध 
एक टेक गीत की 
बतरस भीगी संध्या 
बातचीत की । 
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा 
छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा ।
एक क़सम जीने की 
ढेर उलझनें 
दोनों ग़र नहीं रहे 
बात क्या बने । 
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा 
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा । ...................उमाकांत मालवीय.....

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