नदी जो की समुद्र की प्रेमिका मानी गयी है वो
अपने प्रेमी से क्या बात करती है उसे बड़े ही खूबसूरत ढंग से, अनोखी उपमाओं के
साथ बेचैन जी ने से गीत मैं प्रस्तुत किया है। उनके इस शानदार गीत का हमेशा से ही
मुरीद रहा हूँ।
नदी बोली समन्दर से……
नदी बोली समन्दर से,
मैं तेरे पास आई हूँ।
मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही रुबाई हूँ।।
नदी बोली समन्दर से,
मुझे ऊँचाइयों का वो, अकेलापन नहीं भाया;
लहर होते हुये भी तो, मेरा आँचल न लहराया;
मुझे बाँधे रही, ठंडे बरफ की रेशमी काया।
बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर;
छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।।
नदी बोली समन्दर से,
मुझे पत्थर, कभी उन घाटियों के प्यार ने रोका;
कभी कलियों, कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका;
मुझे कर्तव्य से ज़्यादा, किसी अधिकार ने रोका
मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका
मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई;
मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।।
नदी बोली समन्दर से,
पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल;
नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू, नई पायल;
नया झूमर, नई टिकुली, नई बिंदिया, नया काजल।
पहन आई मैं हर गहना,
कि तेरे साथ ही रहना;
लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ।
नदी बोली समन्दर से
डा. कुंवर 'बेचैन'
अप्रतिम, अद्वितीय ।
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